एकान्त चौहान (Cgfilm.in)। छत्तीसगढ़ में टूरिंग टॉकीज का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। टूरिंग टॉकीज यानी एक प्रकार चलता-फिरता सिनेमा घर है। वहीं कई-कई जगहों पर टूरिंग टॉकीज स्थायी भी हुआ करते थे। इन सिनेमाघरों में अत्याधुनिक सुविधाएं तो नहीं होती, लेकिन फिर भी लोगों की भीड़ देखते ही बनती थी। वहीं अब घरों-घर टीवी और बड़े-बड़े सिनेमाघरों के आ जाने से इनका अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। छत्तीसगढ़ में राज्य में लगने वाले पारंपारिक मेले-मड़ई इस तरह के टॉकीजों की मांग काफी होती थी। छत्तीसगढ़ में मुख्यत: राजिम, पांडुका, बलौदाबाजार, शिबरीनारायण, खैरागढ़ सहित नारायणपुर जैसे सुदूर आदिवासी इलाकों और रायगढ़, बिलासपुर, रतनपुर जैसे क्षेत्रों में पर्व और त्योहारों के समय इनकी खासी मांग होती थी।

वहीं आज हम बात कर रहे हैं पिछले महीने 12 फरवरी को रिलीज हुई एक और लव स्टोरी फिल्म की है। यह फिल्म शिवरीनारायण में चल रही मेले में जबरदस्त भीड़ खींच रही है। फिल्म टूरिंग टॉकीज में रिलीज हुई है, जिसे देखने बड़ी संख्या में दर्शक पहुंच रहे हैं। दर्शकों की भीड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी यदि छत्तीसगढ़ी सिनेमा आम दर्शकों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचे तो वे फिल्म देखने थियेटर की ओर रूख जरूर करते हैं। इसके लिए फिल्म निर्माता और निर्देशक भी लगातार जिला और ब्लॉक स्तर पर मिनी थियेटर के निर्माण की मांग लगातार करते आ रहे हैं।

वैसे देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में टूरिंग टॉकीज का इतिहास काफी पुराना है। 1896 में ग्रेट इंडियन वाईस्कोप कंपनी बनाकर टूरिंग टॉकीज की स्थापना की गई थी। उस समय मुंबई से मशीन खरीदकर छग के लोगों का मनोरंजन शुरू किया गया था। यानी 124 साल से छग में फिल्मों का प्रदर्शन जारी है। यह बात और है कि टूरिंग टॉकीज ओपन थियेटर की जगह अब मॉल ने लेना शुरू कर दिया है।

टूरिंग टॉकीज में फिल्में देख चुके कई बड़े-बजुर्गो ने कुछ खास बातें बताईं। 68 वर्षीय कृष्णा बताते हैं कि बरसात के चार महीनों को छोड़कर बाकी दिनों में टूरिंग टॉकीज में लोगों की भीड़ काफी जुटती थी। लोग अपने साथ बैठने के लिए दरी, बोरा, चटाई, चादर लेकर आते थे। इसके अलावा अलग से घेरा लगाकर उस जमाने में चलने वाले लोहे की कुर्सी की भी व्यवस्था बैठने के लिए की जाती थी, जिसका अतिरिक्त चार्ज लिया जाता था। जमीन पर चारों तरफ से बांस-बल्लियों के सहारे घेरकर बाऊंड्रीवाल बनाकर बीच में पर्दे बनाकर उस पर फिल्म का प्रसारण किया जाता था। उस जमाने में लोगों की काफी भीड़ इक_ा होती थी, क्योंकि मनोरंजन का कोई स्थायी साधन नहीं था। लोग बैलगाडिय़ों और सायकल में फिल्म देखने आते थे। एक-दो नहीं, बल्कि गांवों के सैकड़ों लोग ग्रुप बनाकर फिल्म देखने आते थे, ताकि वापसी के समय उन्हें दिक्कत न हो।

राजिम में कई सालों से मुकेश टॉकीज के नाम से टूरिंग टॉकीज का संचालन करने वालों ने इनसे जुड़ी कुछ और बातें बताईं। वे बताते हैं कि फिल्मों का प्रसारण दो शो में किया जाता था- शाम 7 से 10 और 10 से एक बजे रात तक। टॉकीज 1978 में शुरू किया गया था। उस समय इसका संचालन शिवनारायण गुप्ता किया करते थे। बरसात के समय में कुछ दिक्कतें होती थीं, बाकी गर्मी और ठंड में टॉकीज में काफी भीड़ होती थी। उस दौर की फिल्मों “नदिया के पार”, “हाथी मेरे साथी”, “आराधना”, “वो सात दिन” जैसी कई फिल्मों ने तो रिकॉर्ड तोड़ भीड़ जुटाया था।

वहीं टूरिंग टॉकीज में फिल्म देख चुके देवेंद्र, लक्ष्मण, संतोष, रवि, गोवर्धन जैसे कई लोगों ने बताया कि घर के काम निपटाकर आराम से टूरिंग टॉकीज में फिल्में देखने का मजा ही कुछ और था। टिकट कटाओ और अंदर जाओ, पहले जाओ तो बढिय़ा सीट पाओ। उन्होंने बताया कि आजकल आरामदायक कुर्सी और एयरकंडीशंड टॉकीजों में भी वह मजा नहीं आता। इन लोगों का कहना था कि घर से डिब्बाभर खाना, दरी-चटाई लेकर टॉकीज में फिल्म देखने जाते थे। लेकिन आज टॉकीज बंद हो गया है और महंगाई के चलते मनोरंजन भी आम लोगों से दूर होता जा रहा है।

वहीं कुछ और लोगों से चर्चा में यह बात भी सामने आई कि बरसात में यदि बारिश के चलते फिल्म का प्रसारण नहीं हो पाता था, तो बकायदा हाफ टिकट देखकर पैसे वापस कर दिए जाते थे। कई लोगों का कहना था कि कई फिल्मों के लिए तो टॉकीज के बाहर बैलगाडिय़ों की लाइन लगी रहती थी। लोग रात को फिल्म देखते और सुबह-सुबह सबेरे संगम स्थल पर स्नान कर वापस घर लौट जाते थे। लेकिन अब चाहे शहर हो या गांव भाग-दौड़ बढ़ गई है। वहीं घरों-घर लाइट और टीवी के चलते टूरिंग टॉकीज पूरे छत्तीसगढ़ में लगभग बंद हो गया है।